राजनीतिक शतरंज के खिलाड़ियों ने कश्मीर की भौगौलिक स्थिति और सीमाओं को लेकर हमेशा एक भ्रामक स्थिति बनाए रखी। आम तौर पर जब लोगों से पूछा जाता है कि कश्मीर कहाँ है, तो वे कहते हैं, “यह रहा” और भारत के मानचित्र के “सिर” की ओर इशारा करते हैं, जैसा कि ऊपर दिये मानचित्र में काले बाणचिह्न से दिखाया गया है। पर वास्तव में वे सचाई से कोसों दूर हैं। इसी नक्शे में लाल बाणचिह्नों के द्वारा लेखक ने कश्मीर की सही स्थिति और सीमा दिखाई है। ऊपर दिए नक्शे में भारत की सरकारी रूप से मान्य सीमाएँ दिखाई गई हैं, और कश्मीर क्षेत्र को लाल रेखाओं द्वारा रेखांकित किया गया है। यदि आप एक “बाहर वाले” के नज़रिए से देखना चाहें तो विकिपीडिया का दाएँ दिया नक्शा देखें — इसे क्लिक कर बड़े आकार में देखा जा सकता है। कश्मीर घाटी की सीमाएँ इस नक्शे में भी लाल रेखाओं द्वारा दिखाई गई हैं।
आप पूछेंगे कि कश्मीर और जम्मू-कश्मीर राज्य में भला क्या अन्तर है? यूँ समझें कि सारा झगड़ा कश्मीर का है जम्मू-कश्मीर का नहीं। कश्मीर सुन्नी-मुस्लिम बहुल है, राज्य के अन्य भाग नहीं। कश्मीर में “गो इंडिया गो” का नारा लग रहा है, जबकि राज्य के अन्य भाग भारतीय होने में खुश हैं। कश्मीर जम्मू-कश्मीर का एक छोटा सा हिस्सा है। पर कश्मीर की परिभाषा क्या है? अच्छा हो कि कश्मीरियों से ही पूछा जाए। कश्मीरी भाषा में घाटी से बाहर के क्षेत्र को “न्यबर” कहा जाता है, यानी बाहर या परदेस। कश्मीर उस जम्मू-कश्मीर राज्य का एक छोटा सा हिस्सा है, जो जम्मू, लद्दाख और कश्मीर को मिला कर बना है। राज्य के तीन सूबे हैं जिनमें कश्मीर सूबा सब से छोटा है। और इस छोटू ने ही सब की नाक में दम कर रखा है। इस क्षेत्र में केवल तीन जिले थे — अनन्तनाग, बारामुल्ला और श्रीनगर, जिन्हें अब दस छोटे जिलों में बाँट दिया गया है।
इसी छोटे से क्षेत्र ने पिछले 63 वर्षों में इस इलाके की राजनीति पर अपना बोलबाला कायम किया है। कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के इस अन्तर को हमेशा छुपाया क्यों गया है, और इस अन्तर को उजागर करना क्यों आवश्यक है? दरअसल राज्य का यही छोटा हिस्सा भारत के लिए दर्दे-सर बना हुआ है, क्योंकि इस मुस्लिम बहुल क्षेत्र ने पूरे राज्य को और पूरे क्षेत्र को अपहृत कर रखा है। राज्य का यह भाग जो राज्य का केवल 7% है, स्वयं को एक गैर मुस्लिम देश का भाग मानने में आनाकानी करता है।
राज्य के दक्षिण में जम्मू है, जो हिन्दू-बहुल है, जहाँ के लोग पंजाब-हिमाचल जैसे हैं, और उत्तर में लद्दाख है जहाँ बौद्ध और शिया मुस्लिम रहते हैं, कुछ कुछ तिब्बत से मिलता जुलता। दोनों क्षेत्रों को भारत का भाग होने में कोई दिक्कत नहीं है। केवल कश्मीर है, जहाँ गैर-मुस्लिमों के पलायन के बाद अब 97% आबादी मुसलमानों की है। यही वह हिस्सा है जो आग का गोला बना हुआ है। वह खूबसूरत वादी, जिसे कभी जन्नत कहा जाता था, और जिसे अलगाववाद ने जहन्नुम में तब्दील कर दिया गया है। इसी क्षेत्र के अधिकांश वासी इस छोटे से क्षेत्र के लिए आज़ादी की माँग कर रहे हैं। इस राज्य की विविधता, भारत की विविधता में तो घुलमिल जाएगी, पर हरे-झंडे ले लेकर पत्थर बरसाते अलगाववादियों के कश्मीर में कैसे चलेगी?
पाक अधिकृत “कश्मीर” में न कश्मीरी रहते हैं, न वहाँ कश्मीरी बोली जाती है। वहाँ बोली जाने वाली भाषाओं में से एक भी भाषा कश्मीरी से नहीं मिलती जुलती। जाहिर है कि नियन्त्रण रेखा ने किसी परिवार को विभाजित नहीं किया। इस खेल के हर खिलाड़ी के लिए महाराजा हरिसिंह की इस रियासत के ईंट-रोड़े को इकट्ठा रखना एक राजनैतिक मजबूरी रही है — चाहे वह कहीं की ईंट हो कहीं का रोड़ा। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में कुछ भी एक सा नहीं है, सिवाय इसके कि यह तीनों सूबे एक ही राजा के अन्तर्गत थे। हर क्षेत्र की अपनी वांशिकता है, अपना मज़हब, अपनी भौगोलिक स्थिति और प्रवृति, अपनी जलवायु, अपनी संस्कृति और अपनी भाषा। देश में किसी भी राज्य में इतनी विविधता नहीं है।
यहाँ तक कि 1950 के दशक में देश का भाषाई पुनर्गठन तो हुआ पर इस राज्य को नहीं छुआ गया, क्योंकि इसे विशेष स्टेटस हासिल था। भारत शायद इस राज्य को इसलिए इकट्ठा रखना चाहता है कि जम्मू और लद्दाख कश्मीर और शेष भारत के बीच गोंद का काम करें। भारत को लगता है कि राज्य का विभाजन किया तो देश का विभाजन दूर नहीं होगा। पाकिस्तान भी जम्मू-कश्मीर का नाम एक साथ लेता है ताकि वह पूरे राज्य पर अपना दावा ठोक सके और नौबत पड़ने पर शायद हिन्दू क्षेत्रों की सौदेबाजी कर सके।
शायद इसी कारण वे अपने हथियाए हुए इलाके को AJK (आज़ाद जम्मू कश्मीर) कहते हैं, जो न आज़ाद है, न जम्मू है, न कश्मीर है। पाक अधिकृत “कश्मीर” में न कश्मीरी रहते हैं, न वहाँ कश्मीरी बोली जाती है। वहाँ बोली जाने वाली भाषाएँ हैं – पहाड़ी, मीरपुरी, गुज्जरी, हिन्दको, पंजाबी और पश्तो (विकिपीडिया के अनुसार)। इन में से एक भी भाषा कश्मीरी से नहीं मिलती जुलती। इस का अर्थ यह भी है कि नियन्त्रण रेखा ने किसी परिवार को विभाजित नहीं किया है। पर कश्मीरी अलगाववादियों की क्या मजबूरी है कि वे जम्मू-कश्मीर राज्य की बात कर रहे हैं, जबकि उन्हें केवल कश्मीर क्षेत्र से ही सरोकार है?
जब कश्मीरी मुसलमान भारत का हिस्सा होने के विरुद्ध तर्क देते हैं तो कहते हैं कि वे भारतीयों से वांशिक रूप से अलग हैं, उनका धर्म अलग है। उन में से अधिकांश स्वयं को भारतीय नहीं मानते। कश्मीर के मुसलमान डोगरा राजा हरिसिंह के खिलाफ तो 1947 से भी पहले लड़ रहे थे। तो अब वे जम्मू-कश्मीर की बात कैसे कर रहे हैं? वे महाराजा के जीते अन्य क्षेत्रों पर कैसे दावा ठोक सकते हैं, जब वह महाराजा ही उनके लिए पराया था? लद्दाख, बल्तिस्तान और गिलगित तो उस समय रियासत का हिस्सा भी नहीं थे, जब डोगरा राजाओं ने जम्मू कश्मीर को अंग्रेज़ों से खरीदा।
लेखक के विचार में कश्मीरियों के इस रवैये के दो कारण हैं — पहला तो यह कि इस तरह वे कह सकेंगे कि हमें इस्लामी पाकिस्तान नहीं चाहिए बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष जम्मू-कश्मीर चाहिए, इससे उन्हें विश्व में सुनवाई मिलेगी — क्योंकि पाकिस्तान और इस्लामी आतंकवाद दुनिया भर में बदनाम हो चुके हैं। दूसरा, इससे उन्हें सौदेबाजी भी करने के लिए जगह मिल जाती है। कश्मीर का जम्मू-कश्मीर का एक छोटा सा अंश होना एक ऐसा तथ्य है जिस के और भी कई अर्थ निकलते हैं। अब चूँकि जम्मू और लद्दाख भारत के साथ खुश हैं, उनके ऊपर तो तथाकथित “आज़ादी” नहीं थोपी जा सकती। बाकी रहा कश्मीर का 6000 वर्ग मील का क्षेत्रफल। यदि इसे एक अलग देश बनाया जाता है, तो यह विश्व के सब से छोटे “लैंड लाक्ड” (ऐसे देश जिनकी कोई सीमा समुद्र से नहीं मिलती) देशों में से होगा – वैकिटन सिटी, लक्समबर्ग और एकाध ही देश इससे छोटे होंगे।
अब आप ही सोचिये कि भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच फंसे इस देश की “आज़ादी” कितने दिन चलेगी? भारत से छुटकारा पाएँगे तो पाकिस्तान निगल जाएगा। दरअसल कश्मीर के कुछ नेता और बेशक पाकिस्तान भी तो मूलतः यही चाहते हैं, पर क्या कश्मीर की आम जनता इसी अंजाम के लिए लड़ रही है? क्या पाकिस्तान उन्हें धारा 370 जैसे विशेषाधिकार देगा? क्या वहाँ भी तालिबानी हुकूमत न चलने लगेगी?
इतने छोटे से भूमि क्षेत्र में क्या इतने प्राकृतिक संसाधन हैं कि यह एक देश बना रहे? जाड़े के महीनों में कश्मीर बर्फ से घिरा रहता है। समुद्र की बात छोड़ें, सड़क से भी वहाँ पहुँचना दूभर हो जाता है। जम्मू श्रीनगर राजमार्ग बन्द हो जाता है तो कश्मीर में खाने के लाले पड़ जाते हैं। बीबीसी का यह पृष्ठ देखें जिस में बताया गया है कि वादिए-कश्मीर आज़ाद की गई तो केवल 1800 वर्ग मील होगी, यानी भूटान का दसवाँ हिस्सा। यह क्षेत्रफल विकिपीडिया पर दिए क्षेत्रफल से काफी कम है, पर जो भी है इस छोटे से क्षेत्र के देश बनने की कल्पना, वह भी ऐसे माहौल में, किसी का भी भला नहीं करेगा। लोकतन्त्र में बहुमत की चलती है, तो राज्य के 7-15% क्षेत्रफल में बसी जनसंख्या पूरे राज्य की बाबत फैसला क्यों करे?
कठुआ के किसी डोगरी भाषी या लेह के किसी बौद्ध को तो निज़ामे-मुस्तफा की चाहत नहीं है। कश्मीर का जम्मू-कश्मीर का एक छोटा सा अंश होना इस बात को भी झुठलाता है कि लोकतन्त्र होने के नाते बहुमत की बात मानी जानी चाहिए। बिल्कुल सही है, लोकतन्त्र में बहुमत की ही चलती है, पर राज्य के 7-15% क्षेत्रफल में बसी जनसंख्या क्या पूरे राज्य की बाबत फैसला करेगी? क्या यह लोकतन्त्र के खिलाफ नहीं होगा? कठुआ में रह रहे एक डोगरी भाषी या लेह में रह रहे किसी बौद्ध को तो निज़ामे-मुस्तफा (इस्लामी शासन) की चाहत नहीं है। कश्मीर तीन ओर से उन क्षेत्रों से घिरा है जो बेशक भारतवादी हैं, और चौथा यानी पश्चिमी सिरा पाकिस्तान ने हथिया रखा है।
एक संप्रभु लोकतांत्रिक देश के लिए कोई इलाका कितना बड़ा होना चाहिए जिस के आधार पर इसके निवासियों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाए? लोकतन्त्र के नाते, क्या अब इसके बाद हैदराबाद या मेरठ के किसी मुस्लिम बहुल क्षेत्र में रायशुमारी करनी पड़ेगी? कश्मीरी हिन्दुओं की माँग है कि यदि कश्मीरी मुसलमानों उन्हें अपने साथ नहीं रहने देते तो उन्हें “पनुन कश्मीर” (अपना कश्मीर) के नाम से कश्मीर के एक हिस्से में बसाया जाए जो भारत का अभिन्न अंग हो।
यदि इस बात को बल दिया जाता है तो कश्मीरी अलगाववादियों के पास “देश” के नाम पर और भी कम क्षेत्र बचता है। यदि इतिहास की घड़ी को पीछे धकेला जा सकता तो शायद यह सही रहता कि महाराजा हरिसिंह ने कश्मीर घाटी को अलग कर पाकिस्तान को सौंप दिया होता। पर राज्य की घुलमुल संरचना के कारण ऐसा नहीं हो सका। राज्य के विभिन्न क्षेत्रों की विभिन्न आकांक्षाएँ थीं, सो उन्होंने राज्य को भारत पाकिस्तान दोनों से अलग रखा। उसके बाद पाकिस्तानी कबाइलियों ने जो किया वह सर्वज्ञात है।
पर हाँ उस समय यदि वादी पाकिस्तान के हवाले कर दी जाती तो शायद सब के लिए बेहतर होता। कश्मीरी हिन्दू तभी भारत का हिस्सा बन गये हो, पाकिस्तान से आसे अन्य हिन्दूओं की तरह। कश्मीरी मुसलमान खुश होते या नहीं, यह अंदाज लगाना मुश्किल है। पर बेशक कोई “आज़ादी की लड़ाई” तो नहीं चल रही होती। अलगाववादियों को धर्मनिरपेक्षता, आज़ादी और जम्मू-लद्दाख की चिन्ता का ढ़ोंग तो छोड़ देना चाहिये। कश्मीर घाटी का मर्ज़ एक कैंसर का रूप धारण कर चुका है।
घातक मर्ज़ के लिए दवा भी घातक चाहिए। कोई भी चरम उपाय होगा तो पूरे शरीर को तकलीफ तो होगी ही। या तो बीमारी का उपचार किया जाय या विष ग्रसित अंग को ही शरीर से पृथक कर दिया जाय। दर्दनाक बात है पर वाकई कश्मीर का आकार इतना छोटा है कि इसके ना होने पर भारत के मानचित्र में कोई बहुत ज़्यादा अन्तर नहीं पड़ेगा। घाटी को या तो देश में पूरी तरह समाहित करना चाहिये (दफा 370 हटाकर) या फिर पूरी तौर से दफा। किसी भी देशभक्त भारतीय की तरह लेखक को भी कश्मीर में लोगों की तकलीफें, और कत्लो-गारत देख कर तकलीफ होती है। पर वहाँ लोग क्यों मारे जा रहे हैं? वहाँ जो अलगाववादी हिंसा हो रही है, उसके कारण वहाँ सेना है, या सेना होने के कारण अलगाववादी हिंसा है?
1989 से पहले तो सब ठीक था। आप ही बतायें, यदि यह जिहाद आज ही समाप्त हो जाए, तो क्या कुछ ही समय में वहाँ से सेना नहीं हटे जायेगी? कश्मीरी अलगाववादियों को इस प्रश्न का उत्तर मालूम है। उन्हें और उनके नेताओं को यह पता है कि वे जिस दिन चाहेंगे उस दिन निर्दोष लोगों की मौतों को रोक सकते हैं। पर अलगाववादियों की सोच यही है कि जब तक असहाय लोग कुरबान नहीं होंगे तब तक निज़ामे-मुस्तफा नहीं मिलेगा। इतिहास कहता है कि टालमटोल राजनीतिक शक्ति के रहते यह नामुमकिन है कि “आर या पार” जैसा कोई रवैया भारत सरकार अख्तियार करे। शायद इसलिए कश्मीरी मुसलमानों के हित में यही है कि वे यथापूर्व स्थिति को प्राप्त करने का प्रयत्न करें — लड़ाई झगड़ा छोड़ें, भारत के विरुद्ध छिड़ा जेहाद समाप्त करें, स्कूलों, दफ्तरों, सिनेमाओं, खेलगाहों, यहाँ तक कि मैखानों में जाना शुरू करें। जो हिन्दू घाटी छोड़ कर जा चुके हैं, वे तो संभवतः लौटेंगे नहीं। 1989 से पहले जो था, उसे हासिल करें। पर शुरुवात पत्थर-बाज़ी बंद होने से ही हो सकती है। – मूल अंग्रेज़ी लेख से लेखक द्वारा स्वयं अनूदित।
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