Dr.B.D.Sharma, Former Commissioner for Scheduled Castes and Scheduled Tribes,
A11, Nangli Rajapur, Nizamuddin (East), New Delhi-110013
Tel 011-24353997 May 19, 2010
Dear friend
Tel 011-24353997 May 19, 2010
Dear friend
I am enclosing herewith a letter addressed to the President of India about ‘PEACE NOW in tribal areas’ for your kind information. The letter deals with some of the crucial Constitutional issues that are not in public domain as also the distorted perception about the tribal situation which stand in the way of a meaningful dialogue. In any case 'Peace Now ' is the first step with no condition on whose firm foundation any further action can sustain.
With best regards,
Dr B D Sharma
Dr B D Sharma
आदरणीय,
जनजातीय इलाकों में तत्काल शांति स्थापना को लेकर राष्ट्रपति के नाम लिखे डॉ बी डी शर्मा के पत्र का हिन्दी तर्जुमा (और अंग्रेजी प्रति) पेश है. राष्ट्र के सामने संकट की स्थिति है. गहरे आत्म-मंथन और एक समग्र आन्दोलन की जरूरत है. आप विचार कर अवगत कराइयेगा. आपसे यह भी अनुरोध है कि आप अपने संगठन / मित्र-मंडली के अन्य साथियों से भी इस विषय पर चर्चा कीजियेगा जिससे इस सम्बन्ध में एक साझी और निर्णायक प्रक्रिया को मजबूत किया जा सके.
पत्र में उठाये गए सवालों के ऐतिहासिक और संविधानिक सन्दर्भ को स्पष्ट करने वाली एक पुस्तक जून पहले सप्ताह में आपसी सहयोग से प्रकाशित होने वाली है. अपनी प्रति के लिए लिखियेगा.
पंकज पुष्कर
भारत जन आन्दोलन
9868984442
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भारत जन आन्दोलन
9868984442
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डाक्टर बी डी शर्मा
पूर्व आयुक्त - अनुसूचित जाति-जनजाति
ए-११ नंगली रजापुर
निजामुद्दीन पूर्व
नई दिल्ली-११००१३
दूरभाष- 011-24353997 मई - १७ २०१०
पूर्व आयुक्त - अनुसूचित जाति-जनजाति
ए-११ नंगली रजापुर
निजामुद्दीन पूर्व
नई दिल्ली-११००१३
दूरभाष- 011-24353997
सेवा में,
राष्ट्रपति, भारत सरकार
नई दिल्ली
महामहिम,
विषय- जनजातीय इलाकों में शांति-स्थापना
1. विदित हो कि आदिवासी मामलों से अपने आजीवन जुड़ाव के आधार पर (जिसकी शुरुआत सन् १९६८ में बस्तर से तब हुई जब वहां संकट के दिन थे और फिर अनुसूचित जाति-जनजाति का अंतिम आयुक्त (साल १९८६-१९९१) रहने की सांविधानिक जिम्मेदारी) मैं आपको यह पत्र एक ऐसे संकटपूर्ण समय में लिख रहा हूं जब आदिवासी जनता के मामले में सांविधानिक व्यवस्था लगभग ढहने की स्थिति में है,आबादी का यह हिस्सा लगभग युद्ध की सी स्थिति में फंसा हुआ है और उस पर हमले हो रहे हैं।
2. इस पत्र के माध्यम से मैं आपसे सीधा संवाद स्थापित कर रहा हूं क्योंकि जनता (और इसमें आदिवासी जनता भी शामिल है) आपको और राज्यपाल को भारत के सांविधानिक प्रधान के रूप में देखती है. संबद्ध राज्य संविधान की रक्षा-संरक्षा के क्रम में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए इस बाबत शपथ उठाते हैं। अनुच्छेद ७८ के अन्तर्गत राष्ट्रपति के रूप में आपके कई अधिकार और कर्तव्य हैं जिसमें एक बात यह भी कही गई है कि मंत्रिमंडल और प्रशासन की सारी चर्चा की आपको जानकारी दी जाएगी और यह भी कि आप मंत्रिमंडल के समक्ष मामलों को विचारार्थ भेजेंगे।
3. खास तौर पर संविधान की पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 3 में कहा गया है- "ऐसे प्रत्येक राज्य का राज्यपाल जिसमें अनुसूचित क्षेत्र हैं, प्रतिवर्ष या जब राष्ट्रपति अपेक्षा करे, उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा और संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य को उक्त क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में निर्देश देने तक होगा।" इस संदर्भ में गौरतलब है कि कोई भी फलदायी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई है। आदिवासी मामलों की परामर्श-परिषद (पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 4) ने कोई प्रभावी परामर्श नहीं दिया।
4. विधि के अन्तर्गत राज्यपाल इस बात को सुनिश्चित कर सकता हैं कि संसद या राज्यों द्वारा बनाया गया कोई भी कानून आदिवासी मामलों में संकेतित दायरे में अमल में ना लाया जाय। मौजूदा स्थिति यह है कि भू-अर्जन और सरकारी आदेशों के जरिए आदिवासी का निर्मन दोहन और दमन हो रहा है। बावजूद इसके, कोई कार्रवाई नहीं की जा रही।
5. दरहकीकत, अगर गृहमंत्रालय के मंतव्य को मानें तो आदिवासी संघीय सरकार की जिम्मेदारी हैं ही नहीं। गृहमंत्रालय के अनुसार तो संघीय सरकार की जिम्मेदारी केवल राज्य सरकारों की मदद करना है। ऐसा कैसे हो सकता है? संघ की कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार पांचवी अनुसूची के विधान के अन्तर्गत समस्त अनुसूचित क्षेत्रों तक किया गया है। इसके अतिरिक्त विधान यह भी है कि ‘ संघ अपनी कार्यपालिका की शक्ति के अन्तर्गत राज्यों को अनुसूचित इलाके के प्रशासन के बारे में निर्देश देगा ’
6. आदिवासी जनता के इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर मैं यह कहने से अपने को रोक नहीं सकता कि केंद्र सरकार आदिवासी जनता के मामले में अपने सांविधानिक दायित्वों का पालन नहीं करने की दोषी है। उसका दोष यह है कि उसने सन् साठ के दशक की स्थिति को जब आदिवासी इलाकों में छिटपुट विद्रोह हुए थे आज के ’युद्ध की सी स्थिति’ तक पहुंचने दिया। संविधान लागू होने के साथ ही आदिवासी मामलों के प्रशासन के संदर्भ में एक नाराजगी भीतर ही भीतर पनप रही थी मगर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। साठ सालों में केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में एक भी निर्देश राज्यों को जारी नहीं किया। राष्ट्र के प्रधान के रुप में इस निर्णायक समय में आपको सुनिश्चित करना चाहिए कि केंद्र सरकार भौतिक, आर्थिक और भावनात्मक रुप से तहस-नहस, धराशायी और वंचित आदिवासियों के प्रति यह मानकर कि उनकी यह क्षति अपूरणीय है खेद व्यक्त करते हुए अपनी सांविधानिक जिम्मेदारी निभाये। आदिवासियों की इस अपूरणीय क्षति और वंचना समता और न्याय के मूल्यों से संचालित इस राष्ट्र के उज्ज्वल माथे पर कलंक की तरह है।
7. मैं आपका ध्यान देश के एक बड़े इलाके में तकरीबन युद्ध की सी स्थिति में फंसी आदिवासी जनता के संदर्भ में कुछेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर आकर्षित करना चाहता हूं। आपके एक सुयोग्य पूर्ववर्ती राष्ट्रपति श्री के आर नारायणन ने २६ जनवरी २००१ को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में बड़े जतन से उन महनीय कानूनों की तरफ ध्यान दिलाया था जिन्हें आदिवासी क्षेत्रों की रक्षा के लिए बनाया गया है और जिन कानूनों को अदालतों ने भी अपने फैसलें देते समय आधारभूत माना है। श्री नारायणन ने गहरा अफसोस जाहिर करते हुए कहा था कि विकास की विडंबनाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा गया है। उन्होंने बड़े मार्मिक स्वर में कहा था कि, ‘ कहीं ऐसा ना हो कि आगामी पीढियां कहें कि भारतीय गणतंत्र को वन-बहुल धरती और उस धरती पर सदियों से आबाद वनवासी जनता का विनाश करके बनाया गया।.’
8. कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो अपने देश के सत्ताधारी अभिजन अक्सर आदिवासियों को गरीब बताकर यह कहते हैं कि उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है। यह दरअसल आदिवासी जीवन मूल्यों के प्रति इनकी निर्मम संवेदनहीनता और समझ के अभाव का सूचक है। ऐसा कह कर वे उन सहज लोगों के मर्मस्थान पर आघात करते हैं जिन्हें अपनी इज्जत जान से भी ज्यादा प्यारी है। ध्यान रहे कि आदिवासी गरीब नहीं है। आदिवासी जनता को उसके ही देस में, उस देस में जहां धरती माता ने अपनी इस प्रिय संतान के लिए प्रकृति का भरपूर खजाना लुटाया है, दायवंचित किया गया है। अपनी जीवंत विविधता पर गर्व करने वाली भारतीय सभ्यता के जगमग ताज में आदिवासी जनता सबसे रुपहला रत्न है।
9. यही नहीं, आदिवासी जनता ’.इस धरती पर सर्वाधिक लोकतांत्रिक मिजाज की जनता’ है। राष्ट्रनिर्माताओं ने इसी कारण उनकी रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की। पांचवी अनुसूची को 'संविधान के भीतर संविधान' की संज्ञा दी जाती है। फिर भी, इस समुदाय का संविधान अंगीकार करने के साथ ही तकरीबन अपराधीकरण कर दिया गया। पुराने चले आ रहे औपनिवेशिक कानूनों ने उन इलाकों को भी अपनी जद में ले लिया जिसे संविधान अंगीकार किए जाने से पहले अपवर्जित क्षेत्र (एक्सक्लूडेड एरिया) कहा जाता था। औपनिवेशिक कानूनों में समुदाय, समुदाय के रीति-रिवाज और गाँव-गणराज्य के अलिखित नियमों के लिए तनिक भी जगह नहीं रही। ऐसी विसंगति से उबारने के लिए ही राज्यपालों को असीमित शक्तियां दी गई हैं लेकिन वे आज भी इस बात से अनजान हैं कि इस संदर्भ में उनके हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने से आदिवासी जनता के जीवन पर कितना विध्वंसक प्रभाव पड़ा है।
10. पेसा यानी प्राविजन ऑव पंचायत (एक्सटेंशन टू द शिड्यूल्ड एरिया - १९९६ ) नाम का अधिनियम एक त्राणदाता की तरह सामने आया। इस कानून की रचना आदिवासियों के साथ हुए उपरोक्त ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे के लिए किया गया था। पूरे देश में इस कानून ने आदिवासियों को आंदोलित किया। इस कानून को लेकर आदिवासियों के बीच यह मान्यता बनी कि इसके सहारे उनकी गरिमा की रखवाली होगी और उनकी स्वशासन की परंपरा जारी रहेगी। इस भाव को आदिवासी जनता ने 'मावा नाटे मावा राज' (हमारे गांव में हमारा राज) के नारे में व्यक्त किया। बहरहाल आदिवासी जनता के इस मनोभाव से सत्तापक्ष ने कोई सरोकार नहीं रखा। इसका एक कारण रहा सत्ताधारी अभिजन का पेसा कानून की मूल भावना से अलगाव। यह कानून कमोबेश हर राज्य में अपने अमल की राह देखता रहा।
11. आदिवासी जनता के लिए अपने देश में सहानुभूति की कमी नहीं रही है। नेहरु युग के पंचशील में इसके तत्व थे। फिर कुछ अनोखे सांविधानिक प्रावधान किए गए जिसमें आदिवासी मामलों को राष्ट्रीय हित के सवालों के रूप में दलगत संकीर्णताओं से ऊपर माना गया। साल १९७४ के ट्रायबल सब प्लान में आदिवासी इलाकों में विकास के मद्देनजर शोषण की समाप्ति के प्रति पुरजोर प्रतिबद्धता जाहिर की गई। फिर साल १९९६ के पेसा कानून में आदिवासी इलाके के लिए गाँव-गणराज्य की परिकल्पना साकार की गई और वनाधिकार कानून (साल २००६) के तहत आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे का वादा किया गया। तो भी, इन प्रतिबद्धताओं का सबसे दुखद पहलू यह है कि आदिवासियों के साथ किए गए वादों की लंबी फेहरिश्त में कोई भी वादा ऐसा नहीं रहा जिसे तोड़ा नहीं गया, कई मामलों में तो वादों को तोड़ने की हद हो गई। मैं तोड़े गए वादों की एक फेहरिश्त भी इस सूची के साथ संलग्न कर रहा हूं।
12. वादे टूटते रहे और प्रशासन स्वयं शिकारी बन गया तथा सत्तापक्ष के शीर्षस्थ आंखे मूंदे रहे। ऐसी स्थिति में वे विस्थापन के कारण उजड़ने वाले आदिवासियों की गिनती तक भी नहीं जुटा सके। इस क्रम में बेचैनी बढ़ी और बलवे लगातार बढते गए। जंगल में रहने वाले जिन लोगों पर अंग्रेज तक जीत हासिल नहीं कर पाये थे उनके लिए यह राह चुनना स्वाभाविक था। तथाकथित विकास कार्यक्रमों के जरिए आदिवासियों को अपने साथ मिलाने की जुगत एक फांस साबित हुई। ये कार्यक्रम समता के मूल्यों का एक तरह से माखौल थे। गैरबराबरी के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने वाले युवाजनों का एक हिस्सा आदिवासियों का साथी बना। साल १९९८ में मुझसे इन सहज-साधारण लोगों (आदिवासियों) ने कहा था- आसपास दादा (माओवादी) लोगों के आ जाने से हमें कम से कम दारोगा, पटवारी और फॉरेस्ट गार्ड के अत्याचारों से छुट्टी मिली है। फिर भी सत्तापक्ष इस बात पर डटा रहा कि आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद की समस्या सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या है। उसने अपनी इस रटंत में बदलाव की जरुरत नहीं समझी।
13. निष्कर्ष रुप में मेरी विनती है कि आप निम्नलिखित बातों पर तुरंत ध्यान दें-
(क) केंद्र सरकार से कहें कि वह आदिवासी जनता के प्रति अपनी विशेष जिम्मेदारी की बात सार्वजनिक रूप से व्यक्त करे।
राष्ट्रपति, भारत सरकार
नई दिल्ली
महामहिम,
विषय- जनजातीय इलाकों में शांति-स्थापना
1. विदित हो कि आदिवासी मामलों से अपने आजीवन जुड़ाव के आधार पर (जिसकी शुरुआत सन् १९६८ में बस्तर से तब हुई जब वहां संकट के दिन थे और फिर अनुसूचित जाति-जनजाति का अंतिम आयुक्त (साल १९८६-१९९१) रहने की सांविधानिक जिम्मेदारी) मैं आपको यह पत्र एक ऐसे संकटपूर्ण समय में लिख रहा हूं जब आदिवासी जनता के मामले में सांविधानिक व्यवस्था लगभग ढहने की स्थिति में है,आबादी का यह हिस्सा लगभग युद्ध की सी स्थिति में फंसा हुआ है और उस पर हमले हो रहे हैं।
2. इस पत्र के माध्यम से मैं आपसे सीधा संवाद स्थापित कर रहा हूं क्योंकि जनता (और इसमें आदिवासी जनता भी शामिल है) आपको और राज्यपाल को भारत के सांविधानिक प्रधान के रूप में देखती है. संबद्ध राज्य संविधान की रक्षा-संरक्षा के क्रम में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए इस बाबत शपथ उठाते हैं। अनुच्छेद ७८ के अन्तर्गत राष्ट्रपति के रूप में आपके कई अधिकार और कर्तव्य हैं जिसमें एक बात यह भी कही गई है कि मंत्रिमंडल और प्रशासन की सारी चर्चा की आपको जानकारी दी जाएगी और यह भी कि आप मंत्रिमंडल के समक्ष मामलों को विचारार्थ भेजेंगे।
3. खास तौर पर संविधान की पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 3 में कहा गया है- "ऐसे प्रत्येक राज्य का राज्यपाल जिसमें अनुसूचित क्षेत्र हैं, प्रतिवर्ष या जब राष्ट्रपति अपेक्षा करे, उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा और संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य को उक्त क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में निर्देश देने तक होगा।" इस संदर्भ में गौरतलब है कि कोई भी फलदायी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई है। आदिवासी मामलों की परामर्श-परिषद (पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 4) ने कोई प्रभावी परामर्श नहीं दिया।
4. विधि के अन्तर्गत राज्यपाल इस बात को सुनिश्चित कर सकता हैं कि संसद या राज्यों द्वारा बनाया गया कोई भी कानून आदिवासी मामलों में संकेतित दायरे में अमल में ना लाया जाय। मौजूदा स्थिति यह है कि भू-अर्जन और सरकारी आदेशों के जरिए आदिवासी का निर्मन दोहन और दमन हो रहा है। बावजूद इसके, कोई कार्रवाई नहीं की जा रही।
5. दरहकीकत, अगर गृहमंत्रालय के मंतव्य को मानें तो आदिवासी संघीय सरकार की जिम्मेदारी हैं ही नहीं। गृहमंत्रालय के अनुसार तो संघीय सरकार की जिम्मेदारी केवल राज्य सरकारों की मदद करना है। ऐसा कैसे हो सकता है? संघ की कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार पांचवी अनुसूची के विधान के अन्तर्गत समस्त अनुसूचित क्षेत्रों तक किया गया है। इसके अतिरिक्त विधान यह भी है कि ‘ संघ अपनी कार्यपालिका की शक्ति के अन्तर्गत राज्यों को अनुसूचित इलाके के प्रशासन के बारे में निर्देश देगा ’
6. आदिवासी जनता के इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर मैं यह कहने से अपने को रोक नहीं सकता कि केंद्र सरकार आदिवासी जनता के मामले में अपने सांविधानिक दायित्वों का पालन नहीं करने की दोषी है। उसका दोष यह है कि उसने सन् साठ के दशक की स्थिति को जब आदिवासी इलाकों में छिटपुट विद्रोह हुए थे आज के ’युद्ध की सी स्थिति’ तक पहुंचने दिया। संविधान लागू होने के साथ ही आदिवासी मामलों के प्रशासन के संदर्भ में एक नाराजगी भीतर ही भीतर पनप रही थी मगर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। साठ सालों में केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में एक भी निर्देश राज्यों को जारी नहीं किया। राष्ट्र के प्रधान के रुप में इस निर्णायक समय में आपको सुनिश्चित करना चाहिए कि केंद्र सरकार भौतिक, आर्थिक और भावनात्मक रुप से तहस-नहस, धराशायी और वंचित आदिवासियों के प्रति यह मानकर कि उनकी यह क्षति अपूरणीय है खेद व्यक्त करते हुए अपनी सांविधानिक जिम्मेदारी निभाये। आदिवासियों की इस अपूरणीय क्षति और वंचना समता और न्याय के मूल्यों से संचालित इस राष्ट्र के उज्ज्वल माथे पर कलंक की तरह है।
7. मैं आपका ध्यान देश के एक बड़े इलाके में तकरीबन युद्ध की सी स्थिति में फंसी आदिवासी जनता के संदर्भ में कुछेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर आकर्षित करना चाहता हूं। आपके एक सुयोग्य पूर्ववर्ती राष्ट्रपति श्री के आर नारायणन ने २६ जनवरी २००१ को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में बड़े जतन से उन महनीय कानूनों की तरफ ध्यान दिलाया था जिन्हें आदिवासी क्षेत्रों की रक्षा के लिए बनाया गया है और जिन कानूनों को अदालतों ने भी अपने फैसलें देते समय आधारभूत माना है। श्री नारायणन ने गहरा अफसोस जाहिर करते हुए कहा था कि विकास की विडंबनाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा गया है। उन्होंने बड़े मार्मिक स्वर में कहा था कि, ‘ कहीं ऐसा ना हो कि आगामी पीढियां कहें कि भारतीय गणतंत्र को वन-बहुल धरती और उस धरती पर सदियों से आबाद वनवासी जनता का विनाश करके बनाया गया।.’
8. कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो अपने देश के सत्ताधारी अभिजन अक्सर आदिवासियों को गरीब बताकर यह कहते हैं कि उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है। यह दरअसल आदिवासी जीवन मूल्यों के प्रति इनकी निर्मम संवेदनहीनता और समझ के अभाव का सूचक है। ऐसा कह कर वे उन सहज लोगों के मर्मस्थान पर आघात करते हैं जिन्हें अपनी इज्जत जान से भी ज्यादा प्यारी है। ध्यान रहे कि आदिवासी गरीब नहीं है। आदिवासी जनता को उसके ही देस में, उस देस में जहां धरती माता ने अपनी इस प्रिय संतान के लिए प्रकृति का भरपूर खजाना लुटाया है, दायवंचित किया गया है। अपनी जीवंत विविधता पर गर्व करने वाली भारतीय सभ्यता के जगमग ताज में आदिवासी जनता सबसे रुपहला रत्न है।
9. यही नहीं, आदिवासी जनता ’.इस धरती पर सर्वाधिक लोकतांत्रिक मिजाज की जनता’ है। राष्ट्रनिर्माताओं ने इसी कारण उनकी रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की। पांचवी अनुसूची को 'संविधान के भीतर संविधान' की संज्ञा दी जाती है। फिर भी, इस समुदाय का संविधान अंगीकार करने के साथ ही तकरीबन अपराधीकरण कर दिया गया। पुराने चले आ रहे औपनिवेशिक कानूनों ने उन इलाकों को भी अपनी जद में ले लिया जिसे संविधान अंगीकार किए जाने से पहले अपवर्जित क्षेत्र (एक्सक्लूडेड एरिया) कहा जाता था। औपनिवेशिक कानूनों में समुदाय, समुदाय के रीति-रिवाज और गाँव-गणराज्य के अलिखित नियमों के लिए तनिक भी जगह नहीं रही। ऐसी विसंगति से उबारने के लिए ही राज्यपालों को असीमित शक्तियां दी गई हैं लेकिन वे आज भी इस बात से अनजान हैं कि इस संदर्भ में उनके हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने से आदिवासी जनता के जीवन पर कितना विध्वंसक प्रभाव पड़ा है।
10. पेसा यानी प्राविजन ऑव पंचायत (एक्सटेंशन टू द शिड्यूल्ड एरिया - १९९६ ) नाम का अधिनियम एक त्राणदाता की तरह सामने आया। इस कानून की रचना आदिवासियों के साथ हुए उपरोक्त ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे के लिए किया गया था। पूरे देश में इस कानून ने आदिवासियों को आंदोलित किया। इस कानून को लेकर आदिवासियों के बीच यह मान्यता बनी कि इसके सहारे उनकी गरिमा की रखवाली होगी और उनकी स्वशासन की परंपरा जारी रहेगी। इस भाव को आदिवासी जनता ने 'मावा नाटे मावा राज' (हमारे गांव में हमारा राज) के नारे में व्यक्त किया। बहरहाल आदिवासी जनता के इस मनोभाव से सत्तापक्ष ने कोई सरोकार नहीं रखा। इसका एक कारण रहा सत्ताधारी अभिजन का पेसा कानून की मूल भावना से अलगाव। यह कानून कमोबेश हर राज्य में अपने अमल की राह देखता रहा।
11. आदिवासी जनता के लिए अपने देश में सहानुभूति की कमी नहीं रही है। नेहरु युग के पंचशील में इसके तत्व थे। फिर कुछ अनोखे सांविधानिक प्रावधान किए गए जिसमें आदिवासी मामलों को राष्ट्रीय हित के सवालों के रूप में दलगत संकीर्णताओं से ऊपर माना गया। साल १९७४ के ट्रायबल सब प्लान में आदिवासी इलाकों में विकास के मद्देनजर शोषण की समाप्ति के प्रति पुरजोर प्रतिबद्धता जाहिर की गई। फिर साल १९९६ के पेसा कानून में आदिवासी इलाके के लिए गाँव-गणराज्य की परिकल्पना साकार की गई और वनाधिकार कानून (साल २००६) के तहत आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे का वादा किया गया। तो भी, इन प्रतिबद्धताओं का सबसे दुखद पहलू यह है कि आदिवासियों के साथ किए गए वादों की लंबी फेहरिश्त में कोई भी वादा ऐसा नहीं रहा जिसे तोड़ा नहीं गया, कई मामलों में तो वादों को तोड़ने की हद हो गई। मैं तोड़े गए वादों की एक फेहरिश्त भी इस सूची के साथ संलग्न कर रहा हूं।
12. वादे टूटते रहे और प्रशासन स्वयं शिकारी बन गया तथा सत्तापक्ष के शीर्षस्थ आंखे मूंदे रहे। ऐसी स्थिति में वे विस्थापन के कारण उजड़ने वाले आदिवासियों की गिनती तक भी नहीं जुटा सके। इस क्रम में बेचैनी बढ़ी और बलवे लगातार बढते गए। जंगल में रहने वाले जिन लोगों पर अंग्रेज तक जीत हासिल नहीं कर पाये थे उनके लिए यह राह चुनना स्वाभाविक था। तथाकथित विकास कार्यक्रमों के जरिए आदिवासियों को अपने साथ मिलाने की जुगत एक फांस साबित हुई। ये कार्यक्रम समता के मूल्यों का एक तरह से माखौल थे। गैरबराबरी के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने वाले युवाजनों का एक हिस्सा आदिवासियों का साथी बना। साल १९९८ में मुझसे इन सहज-साधारण लोगों (आदिवासियों) ने कहा था- आसपास दादा (माओवादी) लोगों के आ जाने से हमें कम से कम दारोगा, पटवारी और फॉरेस्ट गार्ड के अत्याचारों से छुट्टी मिली है। फिर भी सत्तापक्ष इस बात पर डटा रहा कि आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद की समस्या सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या है। उसने अपनी इस रटंत में बदलाव की जरुरत नहीं समझी।
13. निष्कर्ष रुप में मेरी विनती है कि आप निम्नलिखित बातों पर तुरंत ध्यान दें-
(क) केंद्र सरकार से कहें कि वह आदिवासी जनता के प्रति अपनी विशेष जिम्मेदारी की बात सार्वजनिक रूप से व्यक्त करे।
(ख) आदिवासी इलाकों में तत्काल शांति बहाली का प्रस्ताव करें
(ग) निरंतर पर्यवेक्षण, पुनरावलोकन और कार्रवाई के लिए उपर तक जवाबदेही का एक ढांचा खड़ा किया जाय जिस तक पीडितों की सीधी पहुंच हो।
(घ) एक साल के अंदर-अंदर उन सारे वायदों का पालन हो जो आदिवासी जनता के साथ किए गए और जिन्हें राज्य ने तोड़ा है ।
(च) पेसा कानून के अन्तर्गत स्थानीय जनता की मंजूरी के प्रावधान का पालन दिखाने के लिए जिन मामलों में बलपूर्वक, धोखे-छल या फिर किसी अन्य जुगत से स्थानीय जनता की मंजूरी हासिल की गई और फैसले लिए गए उन फैसलों को पलटा जाये और उनकी जांच हो।
(छ) मौजूदा बिगड़े हालात के समग्र समाधान के लिए लिए व्यापक योजना बने और,
(ज) उन इलाकों में से कुछ का आप दौरा करें जहां सांविधानिक व्यवस्था पर जबर्दस्त संकट आन पड़ा है।.
सादर,
आपका विश्वासी
बी डी शर्मा
प्रति,
1.श्री मनमोहन सिंह जी ,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार
साऊथ ब्लॉक नई दिल्ली
2.श्री प्रणब मुखर्जी
वित्तमंत्री, भारत सरकार
नार्थ ब्लॉक नई दिल्ली
3. श्री वीरप्पा मोईली
विधि और न्यायमंत्री, भारत सरकार
शास्त्रीभवन, नई दिल्ली
(ग) निरंतर पर्यवेक्षण, पुनरावलोकन और कार्रवाई के लिए उपर तक जवाबदेही का एक ढांचा खड़ा किया जाय जिस तक पीडितों की सीधी पहुंच हो।
(घ) एक साल के अंदर-अंदर उन सारे वायदों का पालन हो जो आदिवासी जनता के साथ किए गए और जिन्हें राज्य ने तोड़ा है ।
(च) पेसा कानून के अन्तर्गत स्थानीय जनता की मंजूरी के प्रावधान का पालन दिखाने के लिए जिन मामलों में बलपूर्वक, धोखे-छल या फिर किसी अन्य जुगत से स्थानीय जनता की मंजूरी हासिल की गई और फैसले लिए गए उन फैसलों को पलटा जाये और उनकी जांच हो।
(छ) मौजूदा बिगड़े हालात के समग्र समाधान के लिए लिए व्यापक योजना बने और,
(ज) उन इलाकों में से कुछ का आप दौरा करें जहां सांविधानिक व्यवस्था पर जबर्दस्त संकट आन पड़ा है।.
सादर,
आपका विश्वासी
बी डी शर्मा
प्रति,
1.श्री मनमोहन सिंह जी ,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार
साऊथ ब्लॉक नई दिल्ली
2.श्री प्रणब मुखर्जी
वित्तमंत्री, भारत सरकार
नार्थ ब्लॉक नई दिल्ली
3. श्री वीरप्पा मोईली
विधि और न्यायमंत्री, भारत सरकार
शास्त्रीभवन, नई दिल्ली
4. श्री पी चिदंबरम्
गृहमंत्री, भारत सरकार
नार्थ ब्लॉक, नई दिल्ली
5 श्री कांतिलाल भूरिया
मंत्री आदिवासी मामले, भारत सरकार
शास्त्रीभवन, नई दिल्ली
6. डाक्टर सी पी जोशी
ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री,भारत सरकार
शास्त्रीभवन, नई दिल्ली
7 श्री जयराम रमेश
वन एवम् पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार
पर्यावरण भवन, लोदी रोड, नई दिल्ली
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