आदिवासी के साथ अमीर शब्द शायद फ़िट नही होता और हो भी कैसे खामखां सरकारें अमीर आदमी के हितो को ध्यान मे रखते हुये योजनाएं तो नही बनाती नौकरी मे आरक्षण ,खेती के लिये कम ब्याज पर पैसे, घर बनाने मे मदद, मुफ़्त शिक्षा , मुफ़्त शौचालय शादी पता नही क्या क्या । नौबत यहां तक है कि पहले बच्चे बाप से पूछते थे कि आप अमीर क्यों नही हो अब पूछते हैं कि आप आदिवासी क्यों नही हो ।
आज हद तब हो गयी जब मेरे बड़े लड़के ने स्कूल से घर आते ही डेटाल की मांग की मेरे पूछने पर जवाब मिला कि कुछ unhygienic आदिवासी बच्चे कक्षा मे भरती हो गये हैं और मैडम ने कहा है कि अब हमे इनके साथ जीना सीखना होगा और रोज घर जा के डेटाल से बाडी वाश करना होगा यह सुनते ही मेरा माथा ठनका अरे महिने के ३ हजार रूपये जमा करने के बाद रोज डेटाल का नया खर्चा । खैर बाद मे मामला समझ मे आया कि उच्चतम न्यायालय के निर्देशो के अनुसार हर स्कूल मे गरीबो को भी जगह देना होगा हांलाकी नियम पहले से था पर लागू अभी हो रहा है ।
बेटे ने पूछा कि पापा ये आदिवासी क्या होता है उनके बच्चो की फ़ीस सरकार क्यो भरेगी और ये गरीब क्यों है । ये सुनते ही मेरे मन मे वो पल घूमने लगे जो मैने आदिवासियों के साथ बिताये थे क्या सुखमय जीवन था उनका सुबह जंगल मे पहुचते ही पेड़ की डाली पकड़ी और पहुच गये पेड़ के उपर फ़टाफ़ट लाल चीटे का छता तोड़ा चिड़ियाओ के अंडे एकत्रित किये य फ़ंदा लगाकर चिड़िया या मछली पकड़ ली इसके अलावा जंगल मे फ़ल और कंदमूल एकत्र किया ११ बजे तक घर फ़िर क्या महुआ या सल्फ़ी की मदिरा का सेवन चालू कोदो * और जंगल से लायी हुई सामग्री का भोजन । कपड़े नमक आदि की आवश्यकता हुई तो वनोपज एकत्र किया और उसके बदले मे सामान ले लिया ।
जंगल से उनके भोजन लेने का अर्थ यह नही था कि पर्यावरणतंत्र को नुकसान पहुचाना बल्की हजारो सालो से वे उतना ही लेते थे जिससे जंगल बांझ न हो जाये । उन आदिवासियो के स्निग्ध सुंदर कांतिमान त्वचा शुद्ध मन और सीधे बोल यह उन जन जातियो का व्यह्वार था जिन्हे हम आज आदिवासी कहते हैं । Tribes and cast of central India के लेखक ने लिखा है कि मंडला जिला न्यायालय मे जब एक बैगा की गवाही की सत्यता पर जब सवाल उठा तो तत्कालीन जिलाधीश ने खड़े होकर कहा कि यह गवाह बैगा है और बैगा कभी झूठ नही बोलता । झूठ बोलना भी क्यों जो एक को उपलब्ध है वो हर किसी का है । हर कोई जंगल मे जाकर अपना पेट भर सकता है घर भी ऐसे जो पूर्ण प्राक्रुतिक चीजो से महज तीन दिनो मे बन जाये और छोड़ दिये जाने पर कुछ ही समय मे प्रक्रुती मे समाविष्ट हो जाये बड़े इतने जितना रहने के लिये आवश्यक हो दिखावे के लिये नही और कोई ऐसा बन्धन भी नही है जो एक को बड़ा और दूसरे को छोटा बनाये ।
मेरी नजर मे इन आदिवासियों से अमीर कोई नही था और आज इनसे गरीब भी कोई नही है । जब तक ये अपने मूल पर्यावास मे थे तब तक ये अमीर थे और आज हमारे द्वारा तबाह किये पर्यावास मे ये भिखारी से कम नही । कारण है वो अर्थतंत्र जिसके डा मनमोहन सिंग आज प्रवर्तक हैं और जो अंग्रेजो के समय से लागू है । इस अर्थतंत्र का जन्म ही उच्चवर्ग के भोगविलास के लिये बना था अमीरो के बड़े महलो के लिये उच्च गुणवत्ता की इमारती लकड़ी चाहिये थी वही रेलवे स्लीपर के लिये और फ़र्नीचर के लिये भी । पर अमीरो की जमीनो पर तो कारखाने खदान और खेत थे और वनवासियों के जंगल मे फ़ल और फ़ूलदार पेड़ । आदिवासी तो छल कपट जानते नही थे और वे यह भी नही जानते थे कि उनके जिन जंगलो को इमारती लकड़ी के बागानो मे बदला जा रहा है वे उसकी जीवन रेखा हैं आखिर जिस बच्चे का पेट भरा हो वो भोजन की अहमियत क्या जाने । बस क्या था शासको ने इनके जंगल काट दिये लगा दिये मनचाहे इमारती लकड़ी के पेड़ जिस दिन से ये जंगल बदल गये उसी दिन से आदिवासियो और वन्यप्राणियो का बुरा समय शुरू हो गया । हालांकि जंगल अब भी थे चाहे इमारती लकड़ियो के पर अब उनमे भोजन नही था साधन थे साल के पत्तो से थाल और दोने बनाओ या बांस से टोकरी बेचना बाजार मे ही है और मिलना उसके बदले पैसा ही है यही पैसा इस अर्थतंत्र का पहला चारा है विवेकानंद के शब्दो मे कहें तो माया का पहला पासा इस पासे के बाद आदिवासी आदिवासी न रह कर इस आर्थिक पिरामिड के निम्नतम स्तर का प्यादा बन जाता है बाजार मे बेचना और बाजार से लेना और यहीं राज्य सत्ता आदिवासी जीवन मे प्रवेश करती है याने सीधे सीधे भोजन न पाओ बल्की अर्थव्यवस्था के अंदर आओ माल बेचो पैसा लो और उसी पैसे का भुगतान कर खाना दवाई तेल विटामिन ये सब आयेगा पर सीधे पेड़ से नही अर्थतंत्र से और इसी अर्थतंत्र से ये अछूते थे और इस अर्थतंत्र मे सफ़ल होने के लिये बेहद जरूरी मक्कारी की इनमे वंशानुगत कमी थी । इस खेल मे पारंगत होने मे इनकी दसियो पीढ़िया गुजर जायेंगी । आखिर ये खेल सदियो पुराना है इसके नियम भी तेढ़े मेढ़े है इसने पसीने से नही कलम चलाने से तरक्की होती है धोखा देना झूठ बोलना बेईमानी चापलूसी ये सब न केवल सीखना है बल्की इनमे पारंगत होना है और उनको उदाहरण भी दिये जाते हैं कि भाई आखिर प्रतिभा देवी पाटिल बर्तन मांज कर और खाना बनाकर राष्ट्रपती बनी ना ।
अब सवाल यह है कि इस अर्थतंत्र को इनके आरक्षण और अन्य सुविधावो की सूझी कैसे इसका जवाब आसान है कभी इतना अत्याचार न करो कि विद्रोह हो जाये गुलामो का पेट भरा हुआ होना चाहिये और अगली पीढ़ी के गुलामो को प्रोटीन विटामिन न मिलेगा तो वे स्वस्थ सेवक बनेंगे कैसे और जैसे जैसे नक्सलवाद बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे लुभावने वादे भी बढ़ते जा रहे हैं कुछ को पूरा भी किया जा रहा है पर इनके जंगलो को मूल रूप मे वापस लाने की बात कोई नही कहेगा क्यों भई जब सीधे पेड़ से खाना मिलेगा तो कौन बेवकूफ़ हमारे यहां मजदूर बनने आयेगा । इसलिये हे आदिवासी तुझे आरक्षण से लेकर सब सुविधाये मिलेंगी ताकि झुनझुना भी रहे और आदिवासी जहां हमने पहुचाये हैं वही रहे निचले पायदान पर । वैसे भी जब आरक्षण का जिन्न पैदा हुआ था तब ही इस शासनतंत्र ने कुछ मुहलगी जातियो को आदिवासियो मे शामिल कर लिया था ।
* कोदो वही अनाज है जो आज बासमती से ३ गुना दाम मे बिक रहा है कभी इसे गरीबो का निक्र्ष्ट भोजन समझा जाता था पर ताजा शोध परिणामो के अनुसार यह ह्रुदय और स्वास्थ्य के लिये सर्वोत्तम अनाज है ।
आज हद तब हो गयी जब मेरे बड़े लड़के ने स्कूल से घर आते ही डेटाल की मांग की मेरे पूछने पर जवाब मिला कि कुछ unhygienic आदिवासी बच्चे कक्षा मे भरती हो गये हैं और मैडम ने कहा है कि अब हमे इनके साथ जीना सीखना होगा और रोज घर जा के डेटाल से बाडी वाश करना होगा यह सुनते ही मेरा माथा ठनका अरे महिने के ३ हजार रूपये जमा करने के बाद रोज डेटाल का नया खर्चा । खैर बाद मे मामला समझ मे आया कि उच्चतम न्यायालय के निर्देशो के अनुसार हर स्कूल मे गरीबो को भी जगह देना होगा हांलाकी नियम पहले से था पर लागू अभी हो रहा है ।
बेटे ने पूछा कि पापा ये आदिवासी क्या होता है उनके बच्चो की फ़ीस सरकार क्यो भरेगी और ये गरीब क्यों है । ये सुनते ही मेरे मन मे वो पल घूमने लगे जो मैने आदिवासियों के साथ बिताये थे क्या सुखमय जीवन था उनका सुबह जंगल मे पहुचते ही पेड़ की डाली पकड़ी और पहुच गये पेड़ के उपर फ़टाफ़ट लाल चीटे का छता तोड़ा चिड़ियाओ के अंडे एकत्रित किये य फ़ंदा लगाकर चिड़िया या मछली पकड़ ली इसके अलावा जंगल मे फ़ल और कंदमूल एकत्र किया ११ बजे तक घर फ़िर क्या महुआ या सल्फ़ी की मदिरा का सेवन चालू कोदो * और जंगल से लायी हुई सामग्री का भोजन । कपड़े नमक आदि की आवश्यकता हुई तो वनोपज एकत्र किया और उसके बदले मे सामान ले लिया ।
जंगल से उनके भोजन लेने का अर्थ यह नही था कि पर्यावरणतंत्र को नुकसान पहुचाना बल्की हजारो सालो से वे उतना ही लेते थे जिससे जंगल बांझ न हो जाये । उन आदिवासियो के स्निग्ध सुंदर कांतिमान त्वचा शुद्ध मन और सीधे बोल यह उन जन जातियो का व्यह्वार था जिन्हे हम आज आदिवासी कहते हैं । Tribes and cast of central India के लेखक ने लिखा है कि मंडला जिला न्यायालय मे जब एक बैगा की गवाही की सत्यता पर जब सवाल उठा तो तत्कालीन जिलाधीश ने खड़े होकर कहा कि यह गवाह बैगा है और बैगा कभी झूठ नही बोलता । झूठ बोलना भी क्यों जो एक को उपलब्ध है वो हर किसी का है । हर कोई जंगल मे जाकर अपना पेट भर सकता है घर भी ऐसे जो पूर्ण प्राक्रुतिक चीजो से महज तीन दिनो मे बन जाये और छोड़ दिये जाने पर कुछ ही समय मे प्रक्रुती मे समाविष्ट हो जाये बड़े इतने जितना रहने के लिये आवश्यक हो दिखावे के लिये नही और कोई ऐसा बन्धन भी नही है जो एक को बड़ा और दूसरे को छोटा बनाये ।
मेरी नजर मे इन आदिवासियों से अमीर कोई नही था और आज इनसे गरीब भी कोई नही है । जब तक ये अपने मूल पर्यावास मे थे तब तक ये अमीर थे और आज हमारे द्वारा तबाह किये पर्यावास मे ये भिखारी से कम नही । कारण है वो अर्थतंत्र जिसके डा मनमोहन सिंग आज प्रवर्तक हैं और जो अंग्रेजो के समय से लागू है । इस अर्थतंत्र का जन्म ही उच्चवर्ग के भोगविलास के लिये बना था अमीरो के बड़े महलो के लिये उच्च गुणवत्ता की इमारती लकड़ी चाहिये थी वही रेलवे स्लीपर के लिये और फ़र्नीचर के लिये भी । पर अमीरो की जमीनो पर तो कारखाने खदान और खेत थे और वनवासियों के जंगल मे फ़ल और फ़ूलदार पेड़ । आदिवासी तो छल कपट जानते नही थे और वे यह भी नही जानते थे कि उनके जिन जंगलो को इमारती लकड़ी के बागानो मे बदला जा रहा है वे उसकी जीवन रेखा हैं आखिर जिस बच्चे का पेट भरा हो वो भोजन की अहमियत क्या जाने । बस क्या था शासको ने इनके जंगल काट दिये लगा दिये मनचाहे इमारती लकड़ी के पेड़ जिस दिन से ये जंगल बदल गये उसी दिन से आदिवासियो और वन्यप्राणियो का बुरा समय शुरू हो गया । हालांकि जंगल अब भी थे चाहे इमारती लकड़ियो के पर अब उनमे भोजन नही था साधन थे साल के पत्तो से थाल और दोने बनाओ या बांस से टोकरी बेचना बाजार मे ही है और मिलना उसके बदले पैसा ही है यही पैसा इस अर्थतंत्र का पहला चारा है विवेकानंद के शब्दो मे कहें तो माया का पहला पासा इस पासे के बाद आदिवासी आदिवासी न रह कर इस आर्थिक पिरामिड के निम्नतम स्तर का प्यादा बन जाता है बाजार मे बेचना और बाजार से लेना और यहीं राज्य सत्ता आदिवासी जीवन मे प्रवेश करती है याने सीधे सीधे भोजन न पाओ बल्की अर्थव्यवस्था के अंदर आओ माल बेचो पैसा लो और उसी पैसे का भुगतान कर खाना दवाई तेल विटामिन ये सब आयेगा पर सीधे पेड़ से नही अर्थतंत्र से और इसी अर्थतंत्र से ये अछूते थे और इस अर्थतंत्र मे सफ़ल होने के लिये बेहद जरूरी मक्कारी की इनमे वंशानुगत कमी थी । इस खेल मे पारंगत होने मे इनकी दसियो पीढ़िया गुजर जायेंगी । आखिर ये खेल सदियो पुराना है इसके नियम भी तेढ़े मेढ़े है इसने पसीने से नही कलम चलाने से तरक्की होती है धोखा देना झूठ बोलना बेईमानी चापलूसी ये सब न केवल सीखना है बल्की इनमे पारंगत होना है और उनको उदाहरण भी दिये जाते हैं कि भाई आखिर प्रतिभा देवी पाटिल बर्तन मांज कर और खाना बनाकर राष्ट्रपती बनी ना ।
अब सवाल यह है कि इस अर्थतंत्र को इनके आरक्षण और अन्य सुविधावो की सूझी कैसे इसका जवाब आसान है कभी इतना अत्याचार न करो कि विद्रोह हो जाये गुलामो का पेट भरा हुआ होना चाहिये और अगली पीढ़ी के गुलामो को प्रोटीन विटामिन न मिलेगा तो वे स्वस्थ सेवक बनेंगे कैसे और जैसे जैसे नक्सलवाद बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे लुभावने वादे भी बढ़ते जा रहे हैं कुछ को पूरा भी किया जा रहा है पर इनके जंगलो को मूल रूप मे वापस लाने की बात कोई नही कहेगा क्यों भई जब सीधे पेड़ से खाना मिलेगा तो कौन बेवकूफ़ हमारे यहां मजदूर बनने आयेगा । इसलिये हे आदिवासी तुझे आरक्षण से लेकर सब सुविधाये मिलेंगी ताकि झुनझुना भी रहे और आदिवासी जहां हमने पहुचाये हैं वही रहे निचले पायदान पर । वैसे भी जब आरक्षण का जिन्न पैदा हुआ था तब ही इस शासनतंत्र ने कुछ मुहलगी जातियो को आदिवासियो मे शामिल कर लिया था ।
* कोदो वही अनाज है जो आज बासमती से ३ गुना दाम मे बिक रहा है कभी इसे गरीबो का निक्र्ष्ट भोजन समझा जाता था पर ताजा शोध परिणामो के अनुसार यह ह्रुदय और स्वास्थ्य के लिये सर्वोत्तम अनाज है ।
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