एक व्यक्ति आम के पेड के नीचे आराम से लेटा हुआ था। एक राहगीर ने उससे कहा, कि भाई लेटे क्यों हो काम क्यों नही करते। आदमी बोला- भाई मैं काम क्यों करू तो राहगीर ने कहा कि काम करोगे, तो दो पैसा मिलेगा और उस पैसे को जोड़ कर कुछ व्यापार चालू करना! आदमी ने कहा फ़िर क्या होगा?, राहगीर बोला फ़िर क्या, तुम्हारी शादी हो जायेगी और बच्चे हो जायेंगे- आदमी ने कहा-फिर राहगीर बोला- कि जब बच्चे बड़े हो जाये तो उन्हे व्यापार में लगा देना, फिर तुम चैन से आराम करना! आदमी ने कहा- भाई मैं तो अभी भी चैन से लेटा हूँ, तो मै इतने बवाल में क्यो पडूं।
कमोंबेश यही बात अदिवासियों पर भी लागू होती है। और हमारे मापदंड उन पर लागू नही होते। उनकी जीवन शैली हम से अलग है। जिसे हम विकास कहते हैं। वह उनके लिये विनाश से कम नही है। सन् 1985 तक भी बस्तर के अधिकांश इलाकों मे वस्तु विनिमय ही चलता था। व्यापारी हाट बाज़ारों में अदिवासियों से वनोंपज लेते थे, इसके बदले में उन्हे उनकी जरुरतों का सामान देते थे। उस समय तक अदिवासियों की मुख्य आवश्यकता नमक, कपडे, और गहने इत्यादि ही हुआ करती थी। अधिकांश इलाकों में सड़कें नहीं थी। तभी शायद आदिवासियों की संस्कृति और जीवनशैली भी सरंक्षित थी।
हालाकिं शोषण तब भी था। जैसे 1 किलो चिरौंजीं, जो आज 200 रूपये किलो है के बदले मे 1 किलो नमक जो आज 5 रूपये किलो है, दिया जाता था। पर वह आज के स्तर पर नही था तब बाघ भी प्रचुर मात्रा में थे और जगली भैसें भी । धीरे-धीरे तथाकथित विकास के नाम पर और वनों के दोहन के लिये बस्तर के अंदरूनी इलाकों में सड़कें बनती गयी और हर नयी सड़क के साथ शोषण करने वालों की राह आसान होती गयी !
आदिवासी जो अपनी सरल और पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली के साथ हजारों वर्षों से वन्यप्राणियों के साथ शांत व खुशहाल जीवन जीते रहे थे, अब एक ऐसे परिवेश से घिरने लगे, जिसके बारे में ना वो जानते हैं, और ना ही उसके अनुसार ढलने का उनके पास कोई जरिया था। आदिवासी बेवार पद्धति को अपनाते थे, जिसमें वनों को जला कर बिना हल चलाये बीज डाल दिया जाता है, फिर अगले वर्ष किसी और हिस्से को साफ़ कर उसमें खेती की जाती है, इस तरह के काम के आदी होने के कारण जमीन के मालिकाना हक के आदी नही थे। यह पद्धति वन्य प्राणियों के लिये तो अच्छी थी पर हम जैसे लोगों के घरो को सजने के लिये आवश्यक सागौन जैसी इमारती लकडियों के लिये नही अतः सरकार ने इस पर रोक लगा दी।
अब आदिवासी को स्थाई जमीन के टुकड़े आवंटित कर दिये गये। बावजूद इसके आदिवासी मालिक तो बन ही नही सकता था क्योकि यह उसकी मूल प्रवत्ति ही नही थी। नौकर बनना ही उसकी नियति थी। अब शहर के अधिकारियों और उनकें मातहत व्यापरियों ने मिलकर कौडियों के मोल उनसे जमीनों को खरीदना व उसमें लगे कीमती पेड़ों को काटकर बेचना प्रारंभ कर दिया। आम के आम और गुठलियों के दाम का यह खेल कई दशकों तक चला। इसका अंत बस्तर के प्रसिद्ध मालिक "मकबूजा काण्ड" के साथ हुआ। अभी इसमे कुछ लोगों को सजा भी हुई है।
।अब बस्तर के वनों के मालिक आदिवासी नही वन विभाग था। इन वनों से अपनी जरूरत की चीजें लेने के लिये अधिकारियों की सेवा करना उनकी मजबूरी बन गई! यह सेवा किस प्रकार से की जाती होगी, यह बात मैं पाठकों की कल्पनाशीलता पर छोडता हूँ।
धीरे धीरे बस्तर की "रत्नगर्भा भूमि" पर लोगों की निगाहें पड़ने लगी। उसमें छिपे खजाने को लूटने की होड़ मच गयी। बस्तर वनमण्डल देश का सबसे बडा उत्पादक वन-मण्डल बन गया एंव धडल्ले से वहाँ के जंगल कटने लगे। आदिवासियों और वन्यप्राणियों के हितो को नजरन्दाज करते हुये प्राकृतिक वनों का कोयला बना कर उन्हे सागौन, साल, और बांस के वनों में तब्दील कर दिया।इन विविधता पूर्ण वनों में सागौन, साल और नीलगिरी जैसे व्यवसायिक महत्व वाले वृक्षों का रोपण होने लगा। साथ ही जो जंगल सदियों से आदिवासियों और वन्य प्राणियों को खुशहाल रखते आये थे, अब वो उनका पेट भरने में असमर्थ हो गये।
सन् 1995 से खनिजों की कीमत बढने लगी, साथ ही बस्तर, जिसकी भूमि लौह अयस्क से भरपूर है, वह उन लोगों की निगाह में आ गयी, जिनके पास लाभ और हानि के अलावा कोई और मापदंड नही है। बस क्या था "एम ओ यू" की बाढ आ गयी आम भाषा में "एम ओ यू" का मतलब दो पक्षों में सहमती पर है। किन्तु यहां एम ओ यू का मतलब है- मन्त्री, अधिकारियों और संबधित पक्षों में अंदरूनी समझौता!
यह एम ओ यू कुछ के लिये खुशियों की बहार लाता है। पर कुछ ऐसे भी लोग हैं। जिनके लिये यह विनाश के अलावा कुछ भी नही है। वहाँ रहने वाले आदिवासी जिनकी सुनवाई को कहते हैं जनसुनवाई पर जैसे युद्ध में हारे हुये पक्ष की दलीलें विजेता सुनता है! ठीक उसी तरह इस सुनवाई का फ़ैसला भी पूर्वनियोजित रहता है। वनराज बाघ और उसकी प्रजा की चिन्ता किसी को नही होती ! क्योंकि ये जंगल अभ्यारण्य नही उत्पादन का स्थल मात्र होता है। उत्पादन के जंगल में इनकी हैसियत अवैध कब्जाधारी की होती है।
खैर जब यह "एम ओ यू होता" है तब तालिया बहुत बजती है। वे अधिकारी जो अपने मन्त्री के हर भाषण में सबसे शुरू से सब से अंत तक तालियां बजाते है बडे खुश होते है और मन्त्री भी। लेकिन वहां ताली बजा रहे लोगों में किसी के मन में ये ख्याल तक नही आता, कि हजारों सालों से वहा रहते आये, अदिवासी और बाघ अब कहां जायेंगे।
जहाँ एक ओर ये लोग कैमरे की चमक और तालियों की गडगड़ाहट के बीच "एम ओ यू" कर रहे थे, उसी समय बस्तर की सुदूर वादियों में एक और "एम ओ यू" हो रहा था। यह था नक्सलवादियों और आदिवासियों के बीच इसमें न कैमरे की चमक थी, और ना तालियों की गडगडाहट पर इस "एम ओ यू" के धमाके आज हमारे रोंगटे खड़े कर रहे है। लगातार हो रहे अत्याचार से तंग आकर आज आदिवासियों ने एक ऐसी विचारधारा का समर्थन करना शुरू कर दिया है। जिसमें हमारे दुश्मनों का स्वार्थ निहित है।
आज बस्तर की भूमि कुरुक्षेत्र बन गयी है। महाभारत जैसे धर्म युद्ध, कि तर्ज पर लड़े जा रहे, इस अधर्म युद्ध में दोनो तरफ़ लाशें हमारे अपने योद्धाओं की है। अंतर तो बस यह कि इस युद्ध में कौरव रूपी मन्त्री अफ़सर और उद्योगपतियों पर कोई आंच नही आ रही और बाघ और उसकी प्रजा बिना लड़े ही मारी जा रही है। देश के दुश्मनों का बिना एक सैनिक भेजें ही मंतव्य पूरा हो रहा है।
दुख की बात तो यह है, कि इस रक्तबीज असुर रूपी माओवाद का अंत दमन से ही सम्भव है। इसमे दिक्कत यह है, कि हर दमन के साथ गिरते खून के छीटों से नये रक्तबीज असुर पैदा होते जायेंगे और इसका संहार करने के लिये दुर्गा स्वरूप इंदिरा गांधी भी आज नही है! जिनके पास राजनैतिक दूर दृष्टि और राजनैति इच्छाशक्ति दोनो का अभाव नही था।
अब देखना केवल यह है!, कि सरदार मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति जिनसे देश को कोई खास उम्मीद नही है!, वो क्या आदिवासियों और बाघ प्रजा को जीवनदान दे पायेंगे, या असरदार राहुल गांधी तक इनकी कोई गुहार पहुंच पायेगी।
कमोंबेश यही बात अदिवासियों पर भी लागू होती है। और हमारे मापदंड उन पर लागू नही होते। उनकी जीवन शैली हम से अलग है। जिसे हम विकास कहते हैं। वह उनके लिये विनाश से कम नही है। सन् 1985 तक भी बस्तर के अधिकांश इलाकों मे वस्तु विनिमय ही चलता था। व्यापारी हाट बाज़ारों में अदिवासियों से वनोंपज लेते थे, इसके बदले में उन्हे उनकी जरुरतों का सामान देते थे। उस समय तक अदिवासियों की मुख्य आवश्यकता नमक, कपडे, और गहने इत्यादि ही हुआ करती थी। अधिकांश इलाकों में सड़कें नहीं थी। तभी शायद आदिवासियों की संस्कृति और जीवनशैली भी सरंक्षित थी।
हालाकिं शोषण तब भी था। जैसे 1 किलो चिरौंजीं, जो आज 200 रूपये किलो है के बदले मे 1 किलो नमक जो आज 5 रूपये किलो है, दिया जाता था। पर वह आज के स्तर पर नही था तब बाघ भी प्रचुर मात्रा में थे और जगली भैसें भी । धीरे-धीरे तथाकथित विकास के नाम पर और वनों के दोहन के लिये बस्तर के अंदरूनी इलाकों में सड़कें बनती गयी और हर नयी सड़क के साथ शोषण करने वालों की राह आसान होती गयी !
आदिवासी जो अपनी सरल और पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली के साथ हजारों वर्षों से वन्यप्राणियों के साथ शांत व खुशहाल जीवन जीते रहे थे, अब एक ऐसे परिवेश से घिरने लगे, जिसके बारे में ना वो जानते हैं, और ना ही उसके अनुसार ढलने का उनके पास कोई जरिया था। आदिवासी बेवार पद्धति को अपनाते थे, जिसमें वनों को जला कर बिना हल चलाये बीज डाल दिया जाता है, फिर अगले वर्ष किसी और हिस्से को साफ़ कर उसमें खेती की जाती है, इस तरह के काम के आदी होने के कारण जमीन के मालिकाना हक के आदी नही थे। यह पद्धति वन्य प्राणियों के लिये तो अच्छी थी पर हम जैसे लोगों के घरो को सजने के लिये आवश्यक सागौन जैसी इमारती लकडियों के लिये नही अतः सरकार ने इस पर रोक लगा दी।
अब आदिवासी को स्थाई जमीन के टुकड़े आवंटित कर दिये गये। बावजूद इसके आदिवासी मालिक तो बन ही नही सकता था क्योकि यह उसकी मूल प्रवत्ति ही नही थी। नौकर बनना ही उसकी नियति थी। अब शहर के अधिकारियों और उनकें मातहत व्यापरियों ने मिलकर कौडियों के मोल उनसे जमीनों को खरीदना व उसमें लगे कीमती पेड़ों को काटकर बेचना प्रारंभ कर दिया। आम के आम और गुठलियों के दाम का यह खेल कई दशकों तक चला। इसका अंत बस्तर के प्रसिद्ध मालिक "मकबूजा काण्ड" के साथ हुआ। अभी इसमे कुछ लोगों को सजा भी हुई है।
।अब बस्तर के वनों के मालिक आदिवासी नही वन विभाग था। इन वनों से अपनी जरूरत की चीजें लेने के लिये अधिकारियों की सेवा करना उनकी मजबूरी बन गई! यह सेवा किस प्रकार से की जाती होगी, यह बात मैं पाठकों की कल्पनाशीलता पर छोडता हूँ।
धीरे धीरे बस्तर की "रत्नगर्भा भूमि" पर लोगों की निगाहें पड़ने लगी। उसमें छिपे खजाने को लूटने की होड़ मच गयी। बस्तर वनमण्डल देश का सबसे बडा उत्पादक वन-मण्डल बन गया एंव धडल्ले से वहाँ के जंगल कटने लगे। आदिवासियों और वन्यप्राणियों के हितो को नजरन्दाज करते हुये प्राकृतिक वनों का कोयला बना कर उन्हे सागौन, साल, और बांस के वनों में तब्दील कर दिया।इन विविधता पूर्ण वनों में सागौन, साल और नीलगिरी जैसे व्यवसायिक महत्व वाले वृक्षों का रोपण होने लगा। साथ ही जो जंगल सदियों से आदिवासियों और वन्य प्राणियों को खुशहाल रखते आये थे, अब वो उनका पेट भरने में असमर्थ हो गये।
सन् 1995 से खनिजों की कीमत बढने लगी, साथ ही बस्तर, जिसकी भूमि लौह अयस्क से भरपूर है, वह उन लोगों की निगाह में आ गयी, जिनके पास लाभ और हानि के अलावा कोई और मापदंड नही है। बस क्या था "एम ओ यू" की बाढ आ गयी आम भाषा में "एम ओ यू" का मतलब दो पक्षों में सहमती पर है। किन्तु यहां एम ओ यू का मतलब है- मन्त्री, अधिकारियों और संबधित पक्षों में अंदरूनी समझौता!
यह एम ओ यू कुछ के लिये खुशियों की बहार लाता है। पर कुछ ऐसे भी लोग हैं। जिनके लिये यह विनाश के अलावा कुछ भी नही है। वहाँ रहने वाले आदिवासी जिनकी सुनवाई को कहते हैं जनसुनवाई पर जैसे युद्ध में हारे हुये पक्ष की दलीलें विजेता सुनता है! ठीक उसी तरह इस सुनवाई का फ़ैसला भी पूर्वनियोजित रहता है। वनराज बाघ और उसकी प्रजा की चिन्ता किसी को नही होती ! क्योंकि ये जंगल अभ्यारण्य नही उत्पादन का स्थल मात्र होता है। उत्पादन के जंगल में इनकी हैसियत अवैध कब्जाधारी की होती है।
खैर जब यह "एम ओ यू होता" है तब तालिया बहुत बजती है। वे अधिकारी जो अपने मन्त्री के हर भाषण में सबसे शुरू से सब से अंत तक तालियां बजाते है बडे खुश होते है और मन्त्री भी। लेकिन वहां ताली बजा रहे लोगों में किसी के मन में ये ख्याल तक नही आता, कि हजारों सालों से वहा रहते आये, अदिवासी और बाघ अब कहां जायेंगे।
जहाँ एक ओर ये लोग कैमरे की चमक और तालियों की गडगड़ाहट के बीच "एम ओ यू" कर रहे थे, उसी समय बस्तर की सुदूर वादियों में एक और "एम ओ यू" हो रहा था। यह था नक्सलवादियों और आदिवासियों के बीच इसमें न कैमरे की चमक थी, और ना तालियों की गडगडाहट पर इस "एम ओ यू" के धमाके आज हमारे रोंगटे खड़े कर रहे है। लगातार हो रहे अत्याचार से तंग आकर आज आदिवासियों ने एक ऐसी विचारधारा का समर्थन करना शुरू कर दिया है। जिसमें हमारे दुश्मनों का स्वार्थ निहित है।
आज बस्तर की भूमि कुरुक्षेत्र बन गयी है। महाभारत जैसे धर्म युद्ध, कि तर्ज पर लड़े जा रहे, इस अधर्म युद्ध में दोनो तरफ़ लाशें हमारे अपने योद्धाओं की है। अंतर तो बस यह कि इस युद्ध में कौरव रूपी मन्त्री अफ़सर और उद्योगपतियों पर कोई आंच नही आ रही और बाघ और उसकी प्रजा बिना लड़े ही मारी जा रही है। देश के दुश्मनों का बिना एक सैनिक भेजें ही मंतव्य पूरा हो रहा है।
दुख की बात तो यह है, कि इस रक्तबीज असुर रूपी माओवाद का अंत दमन से ही सम्भव है। इसमे दिक्कत यह है, कि हर दमन के साथ गिरते खून के छीटों से नये रक्तबीज असुर पैदा होते जायेंगे और इसका संहार करने के लिये दुर्गा स्वरूप इंदिरा गांधी भी आज नही है! जिनके पास राजनैतिक दूर दृष्टि और राजनैति इच्छाशक्ति दोनो का अभाव नही था।
अब देखना केवल यह है!, कि सरदार मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति जिनसे देश को कोई खास उम्मीद नही है!, वो क्या आदिवासियों और बाघ प्रजा को जीवनदान दे पायेंगे, या असरदार राहुल गांधी तक इनकी कोई गुहार पहुंच पायेगी।
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